Natasha

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राजा की रानी

इस दुर्जेय वायु की शक्ति का वर्णन करना तो बहुत दूर की बात है, समग्र चेतना से अनुभव करना भी मानो मनुष्य के सामर्थ्य के बाहर है। सम्पूर्ण ज्ञान-बुद्धि को लुप्त करके केवल एक ही धारणा मेरे मन के भीतर अस्पष्ट और निस्संदिग्ध रूप से जागती रह गयी, कि दुनिया की मियाद एकबारगी खत्म होने में अब और कितनी-सी देर है। पास में ही जो एक लोहे का खूँटा था, गले की चादर से मैंने अपने आपको उसी से बाँध रक्खा था। प्रत्येक क्षण मेरे मन में यही खयाल उठने लगा कि बस मुझे यह हवा इस दफे ही खूँटे से छुड़ा देगी और उड़ा ले जाकर समुद्र में जा पटकेगी।

एकाएक जान बड़ा कि काला पानी मानो भीतर के धक्कों से घरघराता हुआ क्रम-क्रम से जहाज के ऊपर चढ़ रहा है। दूर को ऑंख उठाई तो उस तरफ से दृष्टि को पुन: वापस न लौटा सका। एक दफे जान पड़ा वह तो कोई पड़ाव है, किन्तु दूसरे ही क्षण जब भ्रम भंग हुआ तब हाथ जोड़कर मैंने कहा, “भगवान, जैसे तुमने ये दोनों नेत्र दिए थे, वैसे ही आज इन्हें सार्थक भी कर दिया। इतने दिनों तक तो संसार में सर्वत्र ही ऑंखें खोले घूमता फिरा हूँ। किन्तु, तुम्हारी इस सृष्टि की तुलना तो कहीं भी नहीं देखी थी। जहाँ तक दृष्टि पहुँचती है एक अचिन्तनीय विराट्काय महातरंग सिर पर चाँदी-सा शुभ्र किरीट धारण किये तेज चाल से आगे बढ़ती हुई आ रही है। जगत में और भी क्या कोई इतना बड़ा विस्मय है?”

समुद्र में न जाने कितने लोग आया-जाया करते हैं; मैं खुद भी तो कितनी ही दफे इस रास्ते गया-आया हूँ; किन्तु ऐसा दृश्य तो पहले कभी कहीं नहीं देखा था। इसके सिवाय, जिस मनुष्य ने ऑंखों नहीं देखा, उसे समझाकर यह बताना कल्पना के बाप के लिए भी सम्भव नहीं कि पानी की लहर किसी तरह इतनी बड़ी हो सकती है!

मन ही मन बोला, हे तरंग-सम्राट! तुम्हारी टक्कर से हमारा जो कुछ होगा, उसे तो हम जानते ही हैं, किन्तु, अब भी तो तुम्हें यहाँ तक आ पहुँचने में आखिर आधा मिनट की देर है, तब कम से कम उतने समय तक तो मैं अच्छी तरह जी-भरकर तुम्हारे कलेवर को देख लूँ।

यह भाव किसी वस्तु की सुविपुल ऊँचाई और उससे भी अधिक विस्तार देखकर ही इस तरह मन में उत्पन्न नहीं हुआ करता, क्योंकि यदि ऐसा हो तो इसके लिए हिमालय का कोई भी अंग-प्रत्यंग यथेष्ट है। किन्तु, जो यह विराट व्यापार सजीव के समान दौड़ा आ रहा है, उसकी अपरिमेय शक्ति की अनुभूति ने ही मुझे अभिभूत कर डाला।

किन्तु, समुद्र-जल के टकराने से जो एक तरह की ज्वाला सी बार-बार चमक उठती है वह ज्वाला विचित्र रेखाओं में यदि इसके सिर पर न खेलती होती तो गम्भीर कृष्ण जल-राशि की विपुलता को मैं इस अन्धकार में शायद उस तरह न देख पाता। इस समय जितनी भी दूर तक मेरी दृष्टि जाती है उतनी ही दूर तक इस आलोक-माला ने मानो छोटे-छोटे प्रदीपों को जलाकर इस भयंकर सौन्दर्य का चेहरा मेरी ऑंखों के सामने खोल दिया है।

जहाज का भोंपू असीम वायु-वेग से थरथर काँपता हुआ लगातार बजने लगा और भयार्त्त खलासियों का दल अल्लाह के कानों तक अपना आकुल आवेदन पहुँचा देने के लिए गला फाड़-फाड़कर एक साथ चिल्लाने लगा।

जिसके शुभागमन के निमित्त इतना भय, इतनी चीख-पुकार- इतना उद्योग-आयोजन हो रहा था, वह महातरंग आखिर आ पहुँची। एक प्रकाण्ड प्रकार की उलट-पलट के बीच हरवल्लभ के समान मुझे भी पहले जान पड़ा कि निश्चय से ही हम डूब गये हैं; इसलिए, दुर्गा का नाम जपने से अब और क्या हो सकता है। आस-पास ऊपर-नीचे, चारों ओर काला जल ही जल है! जहाज समेत सब लोग पाताल के राजमहल में निमन्त्रण खाने जा रहे हैं, इसमें अब कोई सन्देह नहीं रहा। इस समय चिन्ता केवल यही है कि खाना-पीना आदि वहाँ न जाने किस किस्म का होगा।

किन्तु, करीब मिनट-भर बाद ही दिखाई दिया-नहीं, डूबे नहीं हैं, जहाज समेत हम सब केवल जल के ऊपर उतरा रहे हैं। इसके सिवाय लहर के ऊपर लहर आना भी खत्म नहीं हुआ है, इसलिए हम लोगों का हिंडोला झूलना भी समाप्त नहीं हुआ है। इतनी देर के बाद अब पता लगा कि क्यों कप्तान-साहब ने लोगों को जानवरों के समान गढ़े में डालकर ताला लगवा दिया है। डेक के ऊपर से बीच-बीच में मानो जल की धारा बह जाने लगी। मेरे नीचे की बत्तखें और मुर्गियाँ कितनी ही दफे फड़फड़ाकर और भेड़ें कई बार 'मैं-मैं' करके भव-लीला समाप्त कर गयीं। सिर्फ मैं ही उनके ऊपर आश्रय ग्रहण किये, लोहे के ख्रुंटे को जोर से पकड़े हुए, अपनी भव-लीला सुरक्षित बनाए रहा।

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